अवचेतन के मित्र बनें,मालिक नहीं।

अवचेतन के मित्र बनें,मालिक नहीं।
  गुरमीत सिंह




आज 
एक उपदेश, बहुत जोरो पर प्रचलित है कि, अपने मन के स्वामी बनिए, उसके अधीनस्थ नहीं।यह उपदेश प्रचलन में इसलिए आया है कि,व्यक्ति अपने मन या कहें चेतन मन के निर्देशों के पालन में अत्यंत व्यस्त है,इस यांत्रिक जीवन में,स्वयं का होश नहीं है।अपने होने अथवा न होने की कोई सोच तो बची ही नहीं है।अब मनुष्य को याद दिलाना पड़ रहा है कि,भाई आपका एक पृथक आस्तित्व है,परम सत्ता ने आपका अवतरण विशेष प्रयोजन की पूर्ति हेतु,इस धरा पर कराया है।प्राणी जगत तथा मानव जगत में सबसे बड़ा अंतर यही है कि,केवल रोजी रोटी तथा सुरक्षा के प्रबंधो के अतिरिक्त,आत्मा को मानव जीवन के निहित परमानंद प्राप्त करने का उद्देश्य भी समाहित है।हमारे वर्तमान सामाजिक ,पारिवारिक परिवेश तथा ज्ञान प्रदान करने की प्रणाली से,मनुष्य अपने होने के उद्देश्य को जान ही नही पा रहा है।
अभी जो जीवन निर्वाहन की प्रक्रियाएँ तथा व्यवस्थाएं हैं,उनमे समझा जाता है कि,वर्तमान प्रचलित शिक्षा प्रणाली अंतर्गत डिग्री प्राप्त हो जाने से जीवन यापन हेतु नोकरी उपलब्ध हो जाएगी,अथवा निजी व्यवसाय,पुशतैनी व्यवसाय को चलाया जा सकेगा।जिनको अपने स्थापित पुशतैनी रोजगार चलाने हैं, वह भी अपनी संतानो को न्यूनतम आवश्यक प्रमाणपत्र अथवा डिग्री दिलवाने के विचार से पढ़ाते हैं।जो नितांत असमर्थ या निर्धन वर्ग से हैं, वे अपनी क्षमताओं के अनुरूप प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेने का यत्न कर लेते हैं।यह विस्तृत शिक्षा प्रणाली,अनंत सूचनाओं के ढेर में से यथासंभव सूचनाओ का मन में संग्रह तथा एकत्रित करना तो सिखा ही देती है,परंतु कितने विद्यार्थी इन सूचनाओं का आकलन तथा विश्लेषण कर जीवन का सार निकलना सीख पाते हैं।हम में से,अधिकांश लोग इन सूचनाओं की लाइब्रेरी बन कर घूमते है,व अर्जित सूचनाओं का वितरण समाज में करते हुए जीवन निकाल देते हैं, इन्ही अर्जित सूचनाओं के सहारे,जीवन यापन हेतु,शासकीय,निजी रोजगार प्राप्त कर लेते हैं।शिक्षा प्रणाली अंतर्गत केवल गणित विषय ही एक ऐसा विषय है,जो मनुष्य को आकलन तथा विश्लेषण की क्षमताएं प्रदान करता है,किन्तु इस विषय के ज्ञान का यथा समय,यथा परिस्थिति में उपयोग में लाने को भी सीखना नितांत आवश्यक है।जीवन की अथवा रोजगार की विषम परिस्थितियों में प्रतिस्पर्धा तथा संघर्ष का अनुभव भी मनुष्य को जीवन का अर्थ समझा सकता है,परन्तु यह मनुष्य के मन मे स्थापित सॉफ्टवेयर की गुणवत्ता तथा प्रकृति पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है।
जन्म लेने से जीवन के विभिन्न चरणों में, शिक्षा ग्रहण करने के अतिरिक्त,ऐसे कई पहलू है,जो व्यक्तित्व की गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं।शिक्षा ग्रहण करने के साथ साथ,पारिवारिक तथा सामाजिक परिवेश,भी मानवीय मूल्यों को समझने तथा मानसिक धारणाओं की मन मे स्थापना के मुख्य शिल्पकार हैं।जैसे जैसे बचपन आगे बढ़ता है,आसपास के परिवेश के अवलोकन से निष्कर्ष निकालता है,व ये निष्कर्ष स्थाई रूप से अवचेतन में अंकित होते जाते हैं।इन निष्कर्षों को जब बचपन मूल्यांकित कर रहा होता है,तभी वही समय महत्वपूर्ण होता है कि,क्या मूल्यांकन जीवन को आगे चल कर कठिनाई में तो नहीं डाल देगा।इसी समय परिवार तथा शैक्षिक संस्थाओं की भूमिका महत्पूर्ण हो जाती है।वास्तव में इसी उम्र में बचपन के व्यक्तित्व का मूल्यांकन कर,उसे उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है,अन्यथा कालांतर में तो सिर्फ लकीर पीटने की स्थिति ही रह जाती है।हम लोगों की स्थिति लकीर पीटने जैसी ही बनी हुई है।जिस सॉफ्टवेयर में जीवन का प्रोग्राम स्थाई रूप से अंकित हो चुका है,उसे उपदेशों, व्याख्यानों,प्रशिक्षणों और भी विविध माध्यमों से देकर प्रोग्राम को बदलने की कोशिश करते हैं।और अब,जब,व्यक्ति अवचेतन का सेवक बन चुका है,उसे स्वामी बन जाने के संदेश दे रहे हैं।
शीर्षक से संबंधित व्याख्या अब प्रारम्भ होती है।ऊपर के पैराग्राफ इस आलेख की पृष्ठभूमि को समझने के लिए आवश्यक थे।वास्तव में अवचेतन तथा कंप्यूटर की कार्यप्रणाली परस्पर सुसंगत है।कंप्यूटर की हार्ड डिस्क में संग्रहित सूचनाएं तथा सॉफ्टवेयर एक बार अंकित हो जाने के पश्चात हटाए नहीं जा सकते हैं, कंप्यूटर में ओवर राइट करने तथा हार्ड डिस्क बदलने की सुविधा है,परन्तु मानव मष्तिष्क के साथ यह कदापि संभव नहीं है।जो सॉफ्टवेयर तथा ऑपरेटिंग सिस्टम अवचेतन में स्थापित हो चुका है,हमारा जीवन उन्ही निर्देशों पर चलने के लिए बाध्य है।मात्र सोचने,सुनने,पढ़ने से कोई उल्लेखनीय परिवर्तन तो हासिल होने से रहा।बरसो से जो गुणवत्ता स्थापित की है,उसके परिवर्तन में भी बरसो लगेंगे।अब अगर यह कहा जाए कि,अपने मन के स्वामी बनो तो,सुनने में कर्णप्रिय लगता है,लेकिन क्या अवचेतन सुनने भर से ये निर्देश मान लेगा।जिनकी उम्र निकल गई वो अपने मन को लाख निर्देश दें अथवा निवेदन करें, मन तो अब सुनने से रहा।वैज्ञानिक अध्ययन भी कहते हैं कि,ब्रेन में विद्यमान न्यूरॉन उनमे अंकित निर्देशों का स्थायी सर्किट बना लेते हैं,व जो ऑपरेटिंग सिस्टम बन चुका है,उसका पालन करते हैं।जिनको हटा पाने के लिए,अभी साइन्स ने अभी तक कोई उपाय नहीं सुझाएं हैं।
अब आत्मा,की पुकार अथवा मन के स्वामी बन जाने के आग्रह को,अवचेतन मानने भी असमर्थ हो जाता है।तो क्या हम स्थापित नकारत्मक धारणाओं से कभी छुटकारा पा सकेंगे।वो आदतें, जिन से आनंद,उल्लास,ऊर्जा,शांति का रास्ता बाधित है,को हटा सकेंगे? अगर अब मन के मालिक बन के कोशिश करें, तो कोशिशों में ही उम्र निकल जाएगी।अवचेतन अब तो आपके नियंत्रण में आ जाए,इसके लिए प्रयास कर के देखे जा सकते हैं।यह एक प्रयोग की भांति ही होगा,जिसका परिणाम अज्ञात हो सकता हो।अगर ध्यान करते हैं,तो प्रयत्न करें कि,कुछ समय के लिए,मन पूर्णतः विचार मुक्त हो गया है,पांचो इन्द्रियों के कार्य पर कोई ध्यान नहीं है,सजगता है परंतु फोकस कहीं नहीं है।कोई रिएक्शन ,कोई क्रोध,जलन नहीं हैं, मन में अपूर्व शांति तथा प्रेम ही प्रेम है।इस अवस्था में, चेतन अपने निरन्तर कार्य से मुक्त हो जाता है,तथा अवचेतन भी मन की स्थिति में मूक दर्शक बना हुआ है।अधिकांश लोग इस स्थिति में आ ही नहीं पाते हैं, क्योंकि ऐसी स्थिति में अवचेतन मूक दर्शक बन कर रह ही नहीं पाता,आपके बार बार आदेश निर्देश देने के बाद भी नहीं।अवचेतन ने जो ऑपरेटिंग सिस्टम अंगीकृत किया हुआ है,उससे बाहर जाना आदेश देने से संभव नहीं हैं।चाहें तो आप अवचेतन को डांट लें, बलपूर्वक विचारों को रोकने की कोशिश करें, ऐसी स्थिति में,आपका चेतन मन जब डांटने,और मालिक बनने की प्रक्रिया में लग जाएगा,तो आपका ध्यान करना व्यर्थ हो गया।ध्यान करने में आप मन को नियंत्रण करने में ही पूरा समय निकाल देंगे तो आप अपनी राह से भटक गए हैं।
तो अब,मन के मालिक बनने का खयाल पूरी तरह से त्याग दें।मालिक बनने की उम्र तो बचपन में ही सकती थी।अब मालिक बनने का समय बीत चुका है,उन लोगों का जो,पूर्वान्ह से अपरान्ह में दाखिल हो चुके हैं।आज भी आप अपने अवचेतन से दोस्ती कर लें,फिर देखें, मित्रता निभाने में तो मन का जवाब नहीं।अपने दोनों में से दोस्ती कर लें,और प्रतिदिन अनुरोध करें, उन परिवर्तनों का जो आप,अपने आप में चाहते हैं।इस विधि को अफर्मेशन देने के नाम से भी जाना जाता है।अवचेतन में स्थापित अपने अंहकार का मूल्यांकन करें,व उसे करुणा,दया,प्रेम,क्षमा, आभार जैसे गुणों को अंगीकृत कर समायोजित करें।जैसे जैसे अपने मन से दोस्ताना बढ़ाएंगे,वैसे वैसे मन भी आपको प्रत्योत्तर में आपके अंदर सकारत्मकता के गुण को स्थायी भाव में स्थापित करता जाएगा।जब भी ध्यान में बैठें, मन से अनुरोध करें कि,कृपया शांत रहे,आव्हान करें कि,क्रोध,ईर्ष्या,संदेह,डर की ऊर्जा तरंगों को अनंत में एक अग्निकुंड स्थापित कर जलाया जावे।अवचेतन से मित्रता आपको धीरे धीरे,ध्यान के वास्तविक आयाम की और अग्रसर करेगी।
मन के मीत,हो जाने जो आनंद है,वो शब्दातीत है,यह दोस्ती गुरुमीत भी बनायेगी, तथा परम मीत भी बनायेगी।

गुरमीत सिंह





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