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अवचेतन के मित्र बनें,मालिक नहीं।

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अवचेतन के मित्र बनें,मालिक नहीं।   गुरमीत सिंह आज  एक उपदेश, बहुत जोरो पर प्रचलित है कि , अपने मन के स्वामी बनिए, उसके अधीनस्थ नहीं।यह उपदेश प्रचलन में इसलिए आया है कि,व्यक्ति अपने मन या कहें चेतन मन के निर्देशों के पालन में अत्यंत व्यस्त है,इस यांत्रिक जीवन में,स्वयं का होश नहीं है।अपने होने अथवा न होने की कोई सोच तो बची ही नहीं है।अब मनुष्य को याद दिलाना पड़ रहा है कि,भाई आपका एक पृथक आस्तित्व है,परम सत्ता ने आपका अवतरण विशेष प्रयोजन की पूर्ति हेतु,इस धरा पर कराया है।प्राणी जगत तथा मानव जगत में सबसे बड़ा अंतर यही है कि,केवल रोजी रोटी तथा सुरक्षा के प्रबंधो के अतिरिक्त,आत्मा को मानव जीवन के निहित परमानंद प्राप्त करने का उद्देश्य भी समाहित है।हमारे वर्तमान सामाजिक ,पारिवारिक परिवेश तथा ज्ञान प्रदान करने की प्रणाली से,मनुष्य अपने होने के उद्देश्य को जान ही नही पा रहा है। अभी जो जीवन निर्वाहन की प्रक्रियाएँ तथा व्यवस्थाएं हैं,उनमे समझा जाता है कि,वर्तमान प्रचलित शिक्षा प्रणाली अंतर्गत डिग्री प्राप्त हो जाने से जीवन यापन हेतु नोकरी उपलब्ध हो जाएगी,अथवा निजी व्यवसाय,पुशतैनी व्यवसाय को चलाया