उत्सव मनाइये अभी और यहीं

उत्सव मनाओ,अभी और इसी वक्त



      इस आलेख को पढ़ते ही, क्या उत्सव मनाने का विचार मन में आ रहा है ? ऐसा भी कहीं होता है कि, कभी भी उत्सव मनाना प्रारम्भ कर दें।ये तो पागलपन है।आसपास लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे ? ये तो गया ।पागल हो गया है, यही चिंता सबसे बड़ी है कि,लोग क्या कहेंगे ।यह सही है कि, हमे अपनी इमेज की चिंता अपने स्वास्थ्य व मानसिक शांति से ज्यादा प्रिय है।फिर उत्सव मनाने का भी समय होता है, प्लान बनाया जाता है,पैसों की व्यवस्था की जाती है,सबका खाली समय देखते है,तब उत्सव मनाये जाते हैं ।उत्सव मना कर फिर जीवन की आपाधापी में व्यस्त होकर तनाव पाले जाते है,भविष्य की चिंता ,डर में समाहित होना होता है,जब शरीर साथ देना छोड़ने लगे तो फिर एक प्लान घूमने फिरने का उत्सव मनाने का बनाया जाता है।ज्यादातर लोगों की धारणा यही होती है।लेकिन सोचें क्या ये उत्सव है अथवा कुछ समय के लिए जीवन की कठिनाइयों से मुँह छुपाने का शॉर्टकट है।आप खुशी खरीद रहे हैं,तात्कालिक निजात पाने के लिए।खरीदी हुई प्रसन्नता कभी भी आनंद का स्थायी स्त्रोत नहीं हो सकती है।अपने आप को धोखा देने के लिए ठीक है।योजना बना कर प्रसन्न होना,खुश होना,उत्सव मनाना क्या आपको स्थाई आनंद की ऊर्जा दे रहा है ? सोचिये, बार बार विचार करें, खुशी खरीदनी है या निरन्तर स्थाई आनंद आवश्यक है।

     वास्तव में उत्सव क्या है ? प्राचीन काल से विभिन्न उत्सव मनाए जाने की परंपरा क्यों है। उत्सव की परिभाषा क्या है ? आत्मिक तथा मानसिक आनंद को व्यक्त करने की प्रक्रिया ही उत्सव है,जब हम स्वभाविक आनंद से सराबोर होते है,तो मन स्वयम ही गुनगुनाने लगता है,नृत्य करता है, संगीत की ताल पर पैर थिरकने लगते है,हाथ तबले की ताल से सुसंगत होकर गति करने लगते हैं, आनंदित मन अपनी व्यक्तिगत रुचि ,हॉबी के कार्य पूर्ण ऊर्जा के साथ व एन्जॉय करते हुए करता है। यही उत्सव है,जब आनंदित मन अपने आप को व्यक्त करता है।यहां न कोई पूर्व योजना है,न ही खुशियों को खरीदने का उपक्रम।आप जैसे हो,जहाँ हो अपने आप उत्सव होने लगता है,आनंद का उत्सव जो आपको परमानंद अर्थात सर्वशक्तिमान की और ले जाता है,प्रफ्फुलित मन से ईश्वर की प्रार्थना ,कीर्तन ,भजन,ध्यान भी एक उत्सव ही है,और ये उत्सव सर्वश्रेष्ठ है,महाउत्सव है।

  तो उठिये अभी और इसी वक्त और आनंदित मन से शुद्ध आत्मा से अपने दैनंदिनी आवश्यक कार्यों के साथ साथ आपने अंदर निहित आनंद के प्रकटोत्सव को रूप दे और उत्सव मनाये,नृत्य करें,गुनगुनाये,संगीत सुनें, लेखन करें,अपना मन पसंद कोई भी कार्य करें, लेकिन असामाजिक कार्य न करें।
         अब आप कहेंगे कि उपदेश देना तो बहुत सरल है,ऐसे ही अचानक आनंद कहाँ से लाएं। आप सही सोच रहे हैं, जब मन मे आनंद की भावना ही नहीं है, तो उत्सव कैसा ? आनंद हर प्राणी का मूल स्वभाव है,व ये प्राकृतिक रूप से अखंड आनंद ऊर्जा हमारी आत्मा में ही निहित है।हमने इस स्वभाविक आनंद को पूर्वाग्रहों, अहंकार,इच्छाओं, मोह,लोभ,क्रोध वासनाओं का बहुत बड़े कचरे के ढेर के नीचे दबा दिया है।यह कचरा इतना ज्यादा है कि,आनंद की भावना इसके नीचे गुम हो गई है,इसीलिए आप विवश हैं कि,आनंद कहाँ से लाएं, और इसी आनंद को आप बाजार की विभिन्न दुकानों से खरीदने की योजनाएं बनाते रहते हैं।जो अमूल्य ईश्वरीय खजाना हमारे पास अनंत मात्रा में निशुल्क उपलब्ध है वो हमें पता ही नही है,क्योंकि हमने उसको अपने स्वयं के द्वारा एकत्रित कचरे में गुमा दिया है,और इस कचरे की सडांध को ही जीवन समझ लिया है।
 तो फिर अब क्या करे,कैसे आनंदोत्सव का प्रकटीकरण करें।यह भी आसान नहीं है, वर्षों से जमा गारबेज एकदम से निकलना कठिन है,परन्तु ध्यान मेडिटेशन के अभ्यास से धीरे धीरे आप आनंद को बाहर निकाल सकते है,फिर जीवन का एक अलग ही आयाम सामने आएगा व आप कभी भी कहीं भी अपने रूटीन कार्यों के साथ साथ आनंदोत्सव के प्रकटीकरण के लिए तत्पर होकर अपने मूल ईश्वरीय गुणों के साथ समाहित हो सकेंगे।
आइये  और ईश्वर सर्वशक्तिमान के इस अमूल्य उपहार को आत्मसात कर अपने जीवन को मूल स्वभाव में स्थित करें तथा परमानंद का प्रसाद प्राप्त करे।


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